Chandigarh (sursaanjh.com bureau), 5 October:
अभिव्यक्ति साहित्यिक संस्था ने सीमा गुप्ता के नए काव्य-संग्रह “प्रेम में ही संभव है दिगंबर” का विमोचन किया, हरियाणा उर्दू अकादमी के प्रमुख डॉ चंद्र त्रिखा ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की। मुख्य अतिथि थे हरियाणा साहित्य अकादमी के उपाध्यक्ष डॉ कुलदीप चंद अग्निहोत्री,
विमोचन और गोष्ठी का संयोजन और संचालन किया विजय कपूर ने। संग्रह पर अपनी टिप्पणी पढ़ते हुए साहित्यकार और शिक्षा विद डॉ अश्वनी शांडिल्य ने कहा “अंतर्मन की यात्रा में पीड़ा के रास्ते असंभव को संभव बनाने की प्रक्रिया की कविताएं हैं।” इस पुस्तक पर समालोचना करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार और रंगकर्मी विजय कपूर ने कहा “सीमा का काव्य अमूर्त आध्यात्मिक विचारों को काव्यात्मक सुलभता से हृदयस्पर्शी बनाता है। भाषिक सरलता और मार्मिकता लिए, गहनतम सत्य की अभिव्यक्ति है यह काव्य-संग्रह।


साहित्यकार और दंत सर्जन डॉ विमल कालिया ने कहा “बहुत कुछ खोकर बहुत कुछ पाने की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है यह संग्रह।” साहित्यकार और पत्रकार दीपक चत्रांथल ने कहा “अनुभवों से होते हुए आध्यात्मिक परिणीति की कविताएं हैं सीमा की।” डॉ चंद्र त्रिखा ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा “सीमा की कविताएं मानव मन की मौलिक जिज्ञासाओं को छू कर अध्यात्म की ओर बढ़ती हैं।” मुख्य अतिथि डॉ अग्निहोत्री ने कहा “इस संग्रह में आत्मा की यात्रा, नश्वरता, और परम सत्ता के अनुभव के चिंतन का चित्रण है।” सीमा गुप्ता ने अपनी आध्यात्मिक यात्रा और उससे उपजी इस कृति के बारे में बात करते हुए कहा “यह यात्रा आत्मशुद्धि और निराकार को आकार देने की आध्यात्मिक अनुभव की अद्भुत यात्रा रही है।” आस्था गुप्ता ने अपनी मां के इस काव्य को उनके व्यक्तिव का हिस्सा बताया। अतिथियों द्वारा पुस्तक के अवलोकन के बाद अभिव्यक्ति की मासिक गोष्ठी का संयोजन हुआ।
इस मासिक गोष्ठी में पढ़ीं गईं, अद्भुत कविताएं:
इन रचनाओं में जहाँ कुछ वरिष्ठ कवियों ने जीवन के मूलभूत प्रश्नों और सामाजिक विसंगतियों पर प्रहार किया है, वहीं युवा रचनाकारों ने आधुनिक जीवनशैली, प्रेम की मासूमियत और गहन मानवीय अनुभवों को व्यक्त किया। इसमें आर.के.”सुख़न” का विरोधाभासी भाव लिए उनकी अभिव्यक्ति “थी बेकरारी फिर भी मुझको करार था/ खुश्बू हवा में थी मैं गुलशन का ख़ार था” अंदरूनी बेचैनी और बाहरी शांति के बीच के जटिल रिश्ते को दर्शाती है। जीवन और यथार्थ का चित्रण करते हुए विजय कपूर ने अपनी कविता के माध्यम से लोकतंत्र की विडंबना पर गहरा व्यंग्य किया, जहाँ वह नागरिकों को अपने ‘ईश्वर’ (प्रतिनिधि/व्यवस्था) को ‘ठोक-बजा के चुनने’ की सलाह देते हैं, जो राजनीति और नागरिक जिम्मेदारी के बीच के जटिल संबंध को दर्शाता है। सीमा गुप्ता ने “सच कहा अक्का पीड़ा का घर है मन भयंकर पीड़ा इतनी पीड़ा तटबंध तोड़ समंदर उतार देती है आँखों में।” कविता से पीड़ा की अनुभूति को बहुत मार्मिकता से दर्शाया। अमरजीत अमर की पंक्ति, “हज़ारों साल जिस पुल को बनाने में लगे हैं/ उसे कुछ लोग मिलकर क्यों गिराने में लगे हैं” सामाजिक सद्भाव और स्थापित मूल्यों को तोड़ने की प्रवृत्ति पर एक चिंतनशील और पीड़ादायक टिप्पणी है।
अश्वनी मल्होत्रा “भीम” का द्वंद्व “जहां राम हो वहां काम नहीं/ जहां काम हो, हो कैसे राम वहां” आध्यात्मिकता और भौतिकता के शाश्वत संघर्ष को उजागर करता है। ममता ग्रोवर की सीधी और सशक्त पंक्ति, “ज़रूरी नहीं कि हर किसी को रास आएँ हम!” आत्म-स्वीकृति और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का घोषणापत्र है। बी बी शर्मा ने “मैं तो गुमशुदा सा शख़्स था पहले / मिला तुम से बन गया ख़बर तब से” के माध्यम से प्रेम के परिवर्तनकारी शक्ति और जीवन में पहचान स्थापित करने के भाव को व्यक्त किया। डॉ. नीरू मित्तल ‘नीर’ की कविता, “मुझे आदत है / कैद कर लेने की / मैं जकड़ लेती हूँ / कुछ भी, किसी को भी” अधिकार और गहन लगाव की भावनाओं को दर्शाती है। कृष्णा गोयल की कल्पना “अगवा कर लिया है सूरज को बादलों ने / फिरौती में तेरा दीदार मांग रहे हैं….!” प्रेम में प्रेमिका के सौंदर्य की अतिरंजित और मनमोहक प्रशंसा है। मोनिका कटारिया की रचना प्राकृतिक सौंदर्य और प्रेम का मेल है, जहाँ “हरी सितारों वाली चुनरी” में चाँदनी रात और प्रेमिका की धीमी चाल एक रोमांटिक और स्वप्निल माहौल बनाती है। खुशनूर की पंजाबी कविता “काश के ओह पत्थर ना हुंदा / मैं तैनू रब्ब कहना सी” प्रेम में पूज्यता और निराशा के द्वंद्व को अत्यंत मार्मिक ढंग से व्यक्त करती है।
सुरेन्द्र पाल सोनी ‘काकड़ौद’ की कविता, “फिर हताश अस्तित्व के / थके-हारे गात पर / फूटने लगीं जामुनी कोंपलें” गहरे दुःख और उसके बाद जीवन में आशा की वापसी को प्रकृति के बिंबों के माध्यम से एक शक्तिशाली तरीके से प्रस्तुत करती है। डॉ नवीन गुप्ता ~ नवीं ~ की रचना “यह भी नहीं कि वफ़ा ही वफ़ा हूं मैं/ यह भी नहीं कि बेवफ़ा हूं मैं/ यह भी नहीं कि कोई गिला नहीं/ यह भी नहीं कि तुझ से ख़फ़ा हूं” संबंधों की जटिलता को स्वीकार करती है, जहाँ वह अपनी वफ़ादारी, शिकायत और नाराज़गी के बीच के संतुलन को दर्शाते हैं कुलतारण छतवाल की पंक्ति “मायूसियों में घिर के भी कोई तो आस है, खाली पड़े मकां को भी दस्तक की आस है” अंधेरे में भी आशा की एक किरण के महत्व पर जोर देती है। आर के सौंध की कविता, जहाँ मासूमियत (मुस्कुराना न आना) और निश्छल प्रेम (रूठना-मनाना न आना) का जिक्र है, प्रेम के सरल, निस्वार्थ रूप को दर्शाती है। नवनीत बक्शी की कविता प्रेम में बेचैनी और जागरण के भाव को दर्शाती है: “नयनों में ख्वाब भरे हैं / नींद कहाँ से आए।” डॉ विमल कालिया विमल, डॉ प्रसून प्रसाद, डॉ सुखचैन सिंह भंडारी, डॉ नीज़ा सिंह , पाल अजनबी, रश्मि शर्मा, अन्नू रानी शर्मा, दीपक शर्मा चनार्थल, डॉ अश्वनी शांडिल्य, आस्था गुप्ता, अजय गुप्ता और बबीता कपूर ने भी गोष्ठी में भाग लिया। ये कविताएँ समकालीन हिंदी और पंजाबी काव्य-पटल की विविधता को दर्शाती हैं और इस बात का प्रमाण हैं कि साहित्य आज भी हमारे व्यक्तिगत, सामाजिक और भावनात्मक जीवन के हर पहलू पर गहरी रोशनी डाल रहा है।

